भारतीय राजनीति में बहुत कुछ बदल रहा है जिसकी आहट बार-बार सुनाई दे रही है. चाहे वो हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना हो, जातिवादी टिप्पणियां हों, पूंजीवादी प्रभाव हो या फिर दलितों का राजनीति के केंद्र में आना.
कुछ समय में हर राजनीतिक पार्टी को जो नेता महान लगने लगा है, वो हैं बाबासाहेब भीमराव अांबेडकर. जाहिर है, दलितों के मसीहा को अपने पाले में खींचने की ज़ोर आज़माइश जारी है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पार्टी बीजेपी ही नहीं, उनके पथ-प्रदर्शक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आंबेडकर की जयकार शुरू की है, कांग्रेस, वामदल या आम आदमी पार्टी सब बाबासाहेब के सच्चे वारिस दिखना चाहते हैं
दलित राजनीति नई नहीं है, बहुजन समाज पार्टी और रामदास अठावले की रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया ने केंद्र सरकार में भी भागेदारी रखी है लेकिन अांबेडकर को लेकर जितना शोर आज है वो पहले कभी नहीं रहा.
संघ के प्रमुख ने पहले कहा कि आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए, लेकिन प्रधानमंत्री ने कहा कि आंबेडकर के आदर्शों से कोई समझौता नहीं होगा. मोदी लंदन जाकर आंबेडकर को नहीं भूलते, उनके पुराने घर को तीर्थ जैसी महत्ता दी जाती है.
बहुजन समाज पार्टी का आंबेडकर प्रेम जग ज़ाहिर है. अरविंद केजरीवाल की पार्टी ने 14 अप्रैल ‘सभी दिल्लीवासियों’ को तालकटोरा स्टेडियम में बुलाया है, आंबेडकर जयंती मनाने के लिए.
जेएनयू के वामपंथी छात्र नेता कन्हैया कुमार ने जेल से निकलने के बाद अपने भाषण में कहा था कि लाल और नीला इस देश का भविष्य हैं, यानी लेफ्ट पार्टियों को दलितों के साथ गठजोड़ करना होगा क्योंकि यही भविष्य है.
हिंदू धर्म को ‘पिंजरा’ बताने वाले आंबेडकर बड़ी सार्वजनिक सभा करके बौद्ध धर्म अपनाया था, उन्होंने अपने 22 संकल्प लिए जिनमें से एक ये भी है ”मैं किसी देवी, देवता या अवतार में विश्वास नहीं करूँगा.”
ऐसे में आंबेडकर कहां-कहाँ, कितने और कैसे फिट होंगे ये देखने वाली बात होगी. आंबेडकर अपने समय में अराजक और रैडिकल तक कहे गए. पिछले दिनों जाने-माने स्तंभकार प्रताप भानु मेहता ने आंबेडकर पर एक लंबा लेख लिखा जिसमें उन्होंने बताया कि कैसे आंबेडकर को राजनीतिक परिदृश्य से दूर रखने की कोशिश हुई है.
Source: BBC
