बिहारी संस्कृति के अनेक छाप रहे हैं। कभी यह छाप मिट्टी के दीवारों पर दिखायी देती है तो कभी कोहबर में मारे लाज के सिमटती हुई प्रतीत होती है। कभी यह भोजपुरी में इठलाती है तो मैथिली में कोयल जैसी कुहुकती है। बोधगया के मठों में यह “बुद्धं शरणम गच्छामि” का संदेश देती है तो मनेर शरीफ़ में अल्लाह के साथ इंसान का रिश्ता जोड़ती है। मगर यह बदलते बिहार की बदलती संस्कृति का केवल एक रुप ही है।
आजादी के बाद पूरे देश में फ़िल्मों का चलन बढा और फ़िर फ़िल्मों ने बिहारी संस्कृति को भी अपनाया। राजकपूर की फ़िल्म “तीसरी कसम” इसका एक उदाहरण है। इससे पहले “बिदेसिया” में भी पूरे देश ने बिहारी संस्कृति को जी भरकर देखा। हालांकि बिहार की पहली भोजपुरी फ़िल्म थी गंगा मईया तोहे पियरी चढैबो। कहा जाता है कि वर्ष 1960 में देशरत्न डा राजेंद्र प्रसाद ने उस समय के मशहूर विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी से अनुरोध किया कि वे भोजपुरी में एक फ़िल्म बनायें। वर्ष 1963 में राजेंद्र बाबू का सपना साकार हुआ जब विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी ने निर्मल पिक्चर्स के बैनर तले गंगा मईया तोहे पियरी चढैबो का निर्माण किया। फ़िल्म के निर्देशक थे कुंदन कुमार। इस फ़िल्म में पहली बार बिहार की समृद्ध संस्कृति का समावेशन किया गया। इसके बाद एस एन त्रिपाठी के निर्देशन में बनी फ़िल्म “बिदेसिया”। इसमें उस समय के लोक कलाकार और बिहार के शेक्सपीयर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर के सबसे अधिक लोकप्रिय रचना को आधार बनाया गया।
इसके बाद भोजपुरी फ़िल्मों का प्रदर्शन लगातार होता रहा। मसलन लागी नहीं छूटे राम (1963), गंगा(1965), भौजी(1965), लोहा सिंह(1966), और अमर सुहागिन(1978) आदि उल्लेखनीय है। इसके बाद वर्ष 1979 में आई फ़िल्म बलम परदेसिया, जिसके नायक थे राकेश पांडे। इस फ़िल्म का एक गाना तो आज भी लोगों को जुबानी याद है। “गोरकी पतरकी रे, मारे गुलेलवा जियरा उड़ी उड़ी जाय”।
वर्ष 1980 के बाद भोजपुरी फ़िल्म ने उद्योग का स्वरुप धारण किया। विशेषकर कल्पतरु द्वारा वर्ष 1983 में बनाई गई फ़िल्म “हमार भौजी” आज भी देवर-भाभी के रिश्ते पर बनी सबसे बेहतरीन फ़िल्म मानी जाती है। वही वर्ष 1989 में राजकुमार शर्मा द्वारा निर्देशित फ़िल्म माई ने सबसे अधिक लोकप्रियता बटोरी। इस बीच वर्ष 1982 में गोविन्द मुनीस द्वारा निर्देशित फ़िल्म नदिया के पार इतना लोकप्रिय हुआ कि आज भी इसे एक मानक के रुप में देखा जाता है। अबतक के भोजपुरी फ़िल्मों का चरित्र देखें तो लगभग सभी फ़िल्मों का ताना-बाना एक जैसा यानी पारिवारिक ही था।
भोजपुरी फ़िल्मकारों में प्रयोगधर्मिता का अभाव था, जिसके कारण भोजपुरी फ़िल्म उद्योग अपने अस्तित्व को नहीं पा सका। धीरे-धीरे यह उद्योग बदहाल होता गया। कुछ लोग इसे लालू के शासनकाल में तथाकथित जंगलराज का परिणाम मानते थे। लेकिन वर्ष 2000 में बनी अभय सिन्हा द्वारा बनायी गयी फ़िल्म “ससुरा बड़ा पईसावाला” ने ऐसे लोगों की जुबान पर ताला लगा दिया और यह फ़िल्म भोजपुरी फ़िल्म की सबसे बड़ी सुपरहिट साबित हुई। वर्ष 2000 से लेकर आजतक भोजपुरी फ़िल्मों में प्रयोगों का दौर चल रहा है। जहां एक ओर हिंसा और सेक्स को आधार बनाकर फ़िल्में बनाई जा रही हैं और रुपये कमाये जा रहे हैं तो दूसरी ओर बालीवुड अभिनेत्री नीतू चंद्रा के होम प्रोडक्शन की फ़िल्म “देसवा” ने एक नया प्रयोग किया। राजनीतिक मुद्दों पर बनी इस फ़िल्म को आम दर्शकों ने पूरी तरह नकार भले ही दिया गया हो, लेकिन इसने एक नई परंपरा की शुरुआत अवश्य कर दी है। हाल के वर्षों में भोजपुरी फ़िल्मों में सवर्ण समुदाय के अभिनेताओं का वर्चस्व लगभग समाप्त हो चुका है। कभी सुपरस्टार कहलाने वाले मनोज तिवारी और रविकिशन आज नहीं बिकने वाले घोड़े साबित हो रहे हैं। उनकी जगह दिनेश लाल यादव ऊर्फ़ निरहुआ भोजपुरी सिनेमा के बेताज बादशाह बन चुके हैं। अब ऐसी परिस्थिति में सवर्णवादी फ़िल्म समीक्षक भोजपुरी फ़िल्मों के इस दौर को रसातल का दौर करार देने पर आमदा हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि परदा अभी गिरा नहीं है…
— नवल किशोर कुमार
